Friday, 26 June 2015

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर
ख़ून चलता है तो रूकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से इन्सान नहीं मर जाते
धड़कनें रूकने से अरमान नहीं मर जाते
साँस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते
होंठ जम जाने से फ़रमान नहीं मर जाते
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती
ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक में हो कि मग़रिब में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे- तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है
जंग तो ख़ुद हीं एक मअसला है
जंग क्या मअसलों का हल देगी
आग और खून आज बख़्शेगी
भूख और अहतयाज कल देगी
बरतरी के सुबूत की ख़ातिर
खूँ बहाना हीं क्या जरूरी है
घर की तारीकियाँ मिटाने को
घर जलाना हीं क्या जरूरी है
टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है
इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।
- साहिर लुधियानवी -
देश के समस्त सच्चे पत्रकारों को समर्पित :-
"कभी शेर की तरह दहाड़ता था ,आज आवाज खतरे में है।
चन्द गद्दारों के कारण ,आज पूरा समाज खतरे में है।
लहू भरकर कलम में ,कभी देश सीचा जिसने।
अरे ! देखो आज वही ,पत्रकार खतरे में है।/
शोषित की आवाज़ जली है,इन्साफों के द्वार जले,
वाणी की अभिव्यक्ति जली है,संविधान के सार जले,
इन्कलाब के ग्रन्थ जले हैं,जन गन मन का गान जला,
पत्रकार का जिस्म न कहिये,पूरा हिंदुस्तान जला,
निडर और निर्भीक,शब्द का साधक,सच का राही था,
भ्रष्टों के सिर पर जूता था,सच्चा कलम सिपाही था,
कलम उठाकर लड़ बैठा वो,सत्ता चूर दबंगों से,
और बगावत कर बैठा,सरकारी चंद लफंगों से,
मगर लोहिया के बेटों ने उनका कर्ज उतार दिया,
पत्रकार को घर में घुस जिंदा जलवाकर मार दिया
क्या कोई कर लेगा हम तो यूँ ही घुस कर मारेंगे,
डाकू को डाकू कहने वालो की खाल उतारेंगे,
इसीलिए तो शायद गुंडे सत्ता मद में झूम रहे,
जिन्हें जेल में होना था वो खुलेआम ही घूम रहे,
हत्यारों के सिर पर नेता कृपा बनाए बैठे हैं,
नही बोलते कुछ भी मुहं में दही जमाये बैठे हैं
और "भारती यश"लेकर कवि शायर भी चुप बैठे हैं,
युवा देखिये लैपटॉप को दोनों हाथ समेटे हैं,
मुझे नही ख्वाहिश इन सबकी,बात बताने आया हूँ
पिता जला,उन बच्चों की बस हाय सुनाने आया हूँ,
मुझे मौत का खौफ नही हर खौफ मिटाकर आया हूँ
मैं मुठ्ठी में उस जगेन्द्र की राख उठाकर आया हूँ
मैं वाणी का पुत्र,कलम का सैनिक,पानीदार हूँ मैं,
मुझको भी जिंदा जलवा दो जलने को तैयार हूँ मैं,

Wednesday, 24 June 2015

news

मित्र गर्त मे जा चुकी मीडिया संडे लाश की तरह दुर्गन्ध करती इलेक्ट्रानिक मीडिया की हकिकत से आप लोग तो वाक़िफ़ होंगे हीं पर हाथों में माइक लिए भाड़े की गाड़ियों पर इधर-उधर भागते, ख़बरों की तलाश में हकलान पत्रकारों की असलियत से भी आप को वाक़िफ़ और रूबरू होने की ज़रूरत है......देश और ख़ास कर देश की राजधानी दिल्ली के आस-पास ऐसे तमाम न्यूज़ चैनल हैं जहाँ महीनों से पत्रकारों को उनके वेतन नहीं मिले, सैकड़ो ऐसे पत्रकार हैं जिन्हें बिना किसी कारण के ख़र्च कम करने के नाम पर चैनलों से बाहर कर दिया जाता है.....दुसरों के हक़ की आवाज उठाने वाले हम पत्रकार अपने हक़ की आवाज उठाने के मामलों में इतने कमज़ोर हैं की हम तमाम शोषण और दबाव सहते हुए काल के गाल में समा तो जाते हैं पर अपनी आवाज नहीं उठा पाते.....ख़ैर में भी अपनी आवाज बुलंद नहीं कर सकता पर मैंने एक फैसला लिया है.....जी हाँ इच्छा मृत्यु का.....अदालत में याचिका लगाउँगा इच्छा मृत्यु की अनुमति का.....प्रार्थना करूँगा तथाकथित माननीय न्यायाधीशों से की इच्छा मृत्यु की अनुमति का.....अपने मौत के लिए भूख क्यों ज़िम्मेवार ठहराए.....क्यों ना उन तथाकथित हुक्मरानों और न्याय के मंदिर के देवताओं को इसका ज़िम्मेवार ठहराए जिनके झुठी अकड़

पत्रकारों पर हमले बर्दाश्‍त नहीं

पत्रकारों पर हमले बर्दाश्‍त नहीं

पत्रकार संदीप की हत्या के खिलाफ मध्यप्रदेश के पत्रकार एकजुट, सी बी आई जांच की मांग

पत्रकार संदीप की हत्या के खिलाफ मध्यप्रदेश के पत्रकार एकजुट, सी बी आई जांच की मांग

भोपाल: 24 जून/ मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले में कटंगी में कार्यरत पत्रकार संदीप कोठारी को हाल ही में जलाकर मारने की घटना की कड़ी निंदा करते हुए प्रेस फ्रीडम फोरम ने आज राज्य सरकार से वारदात की जांच केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो सीबीआई को सौपने, संदीप के परिवार को पर्याप्त आर्थिक मदद, सुरक्षा और प्रदेश में पत्रकारों पर हमले की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर मीडियाकर्मी सुरक्षा विधेयक लाकर कानून बनाने की मांग की है।

प्रेस फ्रीडम फोरम के पवन देवलिया ने बताया कि फोरम ने पत्रकार स्व. कोठारी को श्रद्धांजलि देने के साथ ही आज आयोजित बैठक में मध्यप्रदेश पुलिस की जांच को संदिग्ध बताया है। उसने माना है कि जिस तरह से इस जघन्य हत्या के दिन से ही पुलिस स्व. कोठारी को एक अपराधी बताने का प्रयास कर रही है और उस पर फर्जी आपराधिक प्रकरण लादने वाले पुलिस अफसर को एसआईटी का मुखिया बनाकर जांच की जा रही है, उस पर हमारा भरोसा नहीं है, इसलिए हत्या के इस मामले की राज्य सरकार को सीबीआई के हाथ सौंपने की पहल करना चाहिए।

त्रकार प्रशांत कुमार का नाम की तरह ही व्यक्तिव, लेखन भी आतिशी-रेशमी 13 वीं पुण्यतिथि पर स्मरण

पत्रकार प्रशांत कुमार का नाम की तरह ही व्यक्तिव,
लेखन भी आतिशी-रेशमी
13 वीं पुण्यतिथि पर स्मरण
प्रशांत कुमार। शानदार इंसान। अच्छा पत्रकार। दोस्तों का मददगार। आंखों पर गोल। लेकिन बड़े फ्रेम का चश्मा। घुंघराले बाल। हमेशा मुस्कुराते रहना। उसकी पहचान। खबरों के कारण आम-खास में लोकप्रिय। लेखन कभी रेश्मी तो कभी आतिशी। चापलूसों की जमात से बहुत दूर। पत्रकारिता के ग्लैमर में कभी न तो खुद को बांधा। न ही अखबार नवीसों के किसी गिरोह से नाता रखा।
पत्रकारिता के क्षेत्र में अलग पहचान बनाई। न किसी का पिछलग्गू बना। न ही किसी की छाप लगने दी। इसको लेकर सत्ता के गलियारों से मंत्रालय तक था, सिर्फ भ्रम। क्या नेता- क्या अफसर। सबके बीच खुसूरपुसर रहती। कुछ पूछते कि यार, यह किसका खास है। कौन सी विचारधारा का है? दरअसल उसका लेखन ही ऐसा था कि वह सबके करीब था। लेकिन यह सच नहीं। जीहां, हुजूर। यकीन मानिए। कुछ लोगों को तो गलतफहमी होगी। वे कोई किस्सा और कहानी गढ़ सकते हैं। किस्सा गो की तरह सुना भी सकते है। हकीकत यह है कि वे सिर्फ और सिर्फ पत्रकार था। आम आदमी की आवाज था। सामाजिक सरोकारों का पैरोकार था। मेहनतकश, मजलूम, मासूम और बेबस, बेसहारा की आवाज बुलंद करता। कर्मचारी वर्ग हो या राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता। सब उसे जानते। मौका मिलता तो ऐसी जमात से वे खूब बतियाता। तभी तो उसके पास रहता खबरों का खजाना। मेरे जैसे कई उससे रश्क करते। लेकिन उसकी काबलियत। सलाम और तारीफ करने लायक।
प्रशांत की पत्रकारिता का सफर दिलचस्प है। पहले बैंक में नौकरी की। छटपटाहट में छोड़ दी। कुछ करने को लेकर बैचेनी थी। दिल है कि मानता नहीं, की तर्ज पर पहले उसने एक साप्ताहिक अखबार निकालकर खुद को तौला। फिर भोपाल दैनिक जागरण ज्वॉइन किया। उसे लगा कि यहां मंजिल नहीं हैं। कुछ माह बाद वे वर्ष 1989 में भोपाल दैनिक भास्कर में रिपोर्टर बन गया। यहां उसे संपादक के रूप में परम आदरणीय महेश श्रीवास्तवजी मिले। उनकी पारखी नजरों ने प्रशांत को पहचान लिया। उसे सबसे पहले बरकत उल्ला विश्वविद्यालय की कवरेज का जिम्मा सौंपा गया। साथ ही एप्को, एमपी पीसीबी जैसा संस्थान भी बीट की शक्ल में दिए गए। देखते ही देखते कलम के बूते पर वे छा गया। बाद में उसे प्रशासनिक और राजनीतिक रिपोर्टिंग का जिम्मा सौंपा गया।
वे मगरुर नहीं था। सहयोगियों को हमेशा प्रोत्साहित करता। किसी की खामी या कमी को कोई मुद्दा नहीं बनाता। न ही कोई व्यंग्य करता। इस गुण के कारण दफ्तर के अंदर-बाहर वह सबका चहेता था। वे खबरों को लेकर बहुत संजीदा रहता। एकाग्रता के साथ लिखता। इस कारण उसकी कापी में शायद कभी करैक्शन या कटेंट के लेवल पर गलती निकली हो। याद नहीं पड़ता। सिद्धांत वादी भी था। उसने कभी खबर के स्त्रोत का नाम भी साझा नहीं किया। साइंस के स्टूडेंट रहे प्रशांत को आइंसटीन और न्यूटन के सिद्धांत की समझ थी। शायद यही वजह थी कि प्रयोगधर्मी पत्रकारिता के चलते 1990 के दशक में उसका कोई सानी नहीं था।
मैंने भास्कर में काम करते हुए सुना था कि पूर्व संपादक (स्वर्गीय) श्री श्याम सुंदर ब्यौहार जब सिटी रिपोर्टर थे, तब श्री केएफ रुस्तमजी जैसे आईजी उन्हें फोन करके पूछते थे कि सब खैरियत हो तो मुझे सोने की इजाजत है। कुछ इस तरह मैंने प्रशांत के साथ भी देखा। कई मंत्री, अफसर उससे रोजाना बात करते। इस दौरान वह बात-बात में खबर निकाल लेता। तब मैं,प्रशांत न्यूज रूम में साथ ही बैठते थे। रोजाना काफी वक्त भी साथ गुजारते। उसने कई विषयों पर लेखन किया। उसकी लिखी कई खबरें भाषा शैली के कारण यादगार है। दुष्यंत कुमार की कई गजलें और शेर उसे याद थे। वे कुछ खास मौके पर अपने अंतरंग मित्रों के बीच इन्हें खास अंदाज में गुनगुनाता। इसी तरह हिंदी फिल्में देखने का उसे खूब शौक था। वे हास्य फिल्में खास तौर पर देखता। फिर हंसी-मजाक में उस फिल्म के किसी पात्र के नाम से अपने दोस्तों को बुलाता। बाद में खूब हंसता।
सम्मान के नाम से तौबा। उसे खुद का सम्मान कराने में झिझक होती। कई संगठन आग्रह करते। लेकिन विनम्रता से इंकार करता। वे कहता कि पहले इस लायक तो बन जाऊं। हालांकि मित्रों के कहने पर विधानसभा का संसदीय रिपोर्टिंग एवं नगर निगम का राजनीतिक रिपोर्टिंग समेत माधवसप्रे संग्रहालय का पुरस्कार उसने जरुर ग्रहण किया। वे अपने अंतरंग मित्रों के बीच अन्नू था। उसके मित्र जैसे प्रलय श्रीवास्तव, विजय पेशवानी और मैं, अमूमन इसी नाम से बुलाते थे। आज वो नहीं है। फानी दुनिया को अलविदा कहे उसे 13 बरस हो गए। उसका जाना किसी वज्र की तरह कम नहीं। अब उसकी यादें शेष हैं। हर लम्हा, ऐसा लगता हैं कि वो अब आता ही है। लेकिन जाने वाले कहां आते। इतने अर्से में अब खुद को संभाल लिया। उसके परिजनों से लेकर दोस्तों ने नियति के हुक्म को मान लिया। ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दें। यही परमपिता परमात्मा से प्रार्थना हैं। एक बार फिर शत्-शत्- नमन्। सादर आदरांजलि।
अलीम बजमी
न्यूज एडिटर, दैनिक भास्कर भोपाल। 097543-04786

Tuesday, 23 June 2015

प्रशांत: नाम की तरह ही व्यक्तिव, लेखन भी आतिशी-रेशमी 13 वीं पुण्यतिथि पर स्मरण

प्रशांत: नाम की तरह ही व्यक्तिव, लेखन भी आतिशी-रेशमी
13 वीं पुण्यतिथि पर स्मरण
प्रशांत कुमार। शानदार इंसान। अच्छा पत्रकार। दोस्तों का मददगार। आंखों पर गोल। लेकिन बड़े फ्रेम का चश्मा। घुंघराले बाल। हमेशा मुस्कुराते रहना। उसकी पहचान। खबरों के कारण आम-खास में लोकप्रिय। लेखन कभी रेश्मी तो कभी आतिशी। चापलूसों की जमात से बहुत दूर। पत्रकारिता के ग्लैमर में कभी न तो खुद को बांधा। न ही अखबार नवीसों के किसी गिरोह से नाता रखा।
पत्रकारिता के क्षेत्र में अलग पहचान बनाई। न किसी का पिछलग्गू बना। न ही किसी की छाप लगने दी। इसको लेकर सत्ता के गलियारों से मंत्रालय तक था, सिर्फ भ्रम। क्या नेता- क्या अफसर। सबके बीच खुसूरपुसर रहती। कुछ पूछते कि यार, यह किसका खास है। कौन सी विचारधारा का है? दरअसल उसका लेखन ही ऐसा था कि वह सबके करीब था। लेकिन यह सच नहीं। जीहां, हुजूर। यकीन मानिए। कुछ लोगों को तो गलतफहमी होगी। वे कोई किस्सा और कहानी गढ़ सकते हैं। किस्सा गो की तरह सुना भी सकते है। हकीकत यह है कि वे सिर्फ और सिर्फ पत्रकार था। आम आदमी की आवाज था। सामाजिक सरोकारों का पैरोकार था। मेहनतकश, मजलूम, मासूम और बेबस, बेसहारा की आवाज बुलंद करता। कर्मचारी वर्ग हो या राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता। सब उसे जानते। मौका मिलता तो ऐसी जमात से वे खूब बतियाता। तभी तो उसके पास रहता खबरों का खजाना। मेरे जैसे कई उससे रश्क करते। लेकिन उसकी काबलियत। सलाम और तारीफ करने लायक।
प्रशांत की पत्रकारिता का सफर दिलचस्प है। पहले बैंक में नौकरी की। छटपटाहट में छोड़ दी। कुछ करने को लेकर बैचेनी थी। दिल है कि मानता नहीं, की तर्ज पर पहले उसने एक साप्ताहिक अखबार निकालकर खुद को तौला। फिर भोपाल दैनिक जागरण ज्वॉइन किया। उसे लगा कि यहां मंजिल नहीं हैं। कुछ माह बाद वे वर्ष 1989 में भोपाल दैनिक भास्कर में रिपोर्टर बन गया। यहां उसे संपादक के रूप में परम आदरणीय महेश श्रीवास्तवजी मिले। उनकी पारखी नजरों ने प्रशांत को पहचान लिया। उसे सबसे पहले बरकत उल्ला विश्वविद्यालय की कवरेज का जिम्मा सौंपा गया। साथ ही एप्को, एमपी पीसीबी जैसा संस्थान भी बीट की शक्ल में दिए गए। देखते ही देखते कलम के बूते पर वे छा गया। बाद में उसे प्रशासनिक और राजनीतिक रिपोर्टिंग का जिम्मा सौंपा गया।
वे मगरुर नहीं था। सहयोगियों को हमेशा प्रोत्साहित करता। किसी की खामी या कमी को कोई मुद्दा नहीं बनाता। न ही कोई व्यंग्य करता। इस गुण के कारण दफ्तर के अंदर-बाहर वह सबका चहेता था। वे खबरों को लेकर बहुत संजीदा रहता। एकाग्रता के साथ लिखता। इस कारण उसकी कापी में शायद कभी करैक्शन या कटेंट के लेवल पर गलती निकली हो। याद नहीं पड़ता। सिद्धांत वादी भी था। उसने कभी खबर के स्त्रोत का नाम भी साझा नहीं किया। साइंस के स्टूडेंट रहे प्रशांत को आइंसटीन और न्यूटन के सिद्धांत की समझ थी। शायद यही वजह थी कि प्रयोगधर्मी पत्रकारिता के चलते 1990 के दशक में उसका कोई सानी नहीं था।
मैंने भास्कर में काम करते हुए सुना था कि पूर्व संपादक (स्वर्गीय) श्री श्याम सुंदर ब्यौहार जब सिटी रिपोर्टर थे, तब श्री केएफ रुस्तमजी जैसे आईजी उन्हें फोन करके पूछते थे कि सब खैरियत हो तो मुझे सोने की इजाजत है। कुछ इस तरह मैंने प्रशांत के साथ भी देखा। कई मंत्री, अफसर उससे रोजाना बात करते। इस दौरान वह बात-बात में खबर निकाल लेता। तब मैं,प्रशांत न्यूज रूम में साथ ही बैठते थे। रोजाना काफी वक्त भी साथ गुजारते। उसने कई विषयों पर लेखन किया। उसकी लिखी कई खबरें भाषा शैली के कारण यादगार है। दुष्यंत कुमार की कई गजलें और शेर उसे याद थे। वे कुछ खास मौके पर अपने अंतरंग मित्रों के बीच इन्हें खास अंदाज में गुनगुनाता। इसी तरह हिंदी फिल्में देखने का उसे खूब शौक था। वे हास्य फिल्में खास तौर पर देखता। फिर हंसी-मजाक में उस फिल्म के किसी पात्र के नाम से अपने दोस्तों को बुलाता। बाद में खूब हंसता।
सम्मान के नाम से तौबा। उसे खुद का सम्मान कराने में झिझक होती। कई संगठन आग्रह करते। लेकिन विनम्रता से इंकार करता। वे कहता कि पहले इस लायक तो बन जाऊं। हालांकि मित्रों के कहने पर विधानसभा का संसदीय रिपोर्टिंग एवं नगर निगम का राजनीतिक रिपोर्टिंग समेत माधवसप्रे संग्रहालय का पुरस्कार उसने जरुर ग्रहण किया। वे अपने अंतरंग मित्रों के बीच अन्नू था। उसके मित्र जैसे प्रलय श्रीवास्तव, विजय पेशवानी और मैं, अमूमन इसी नाम से बुलाते थे। आज वो नहीं है। फानी दुनिया को अलविदा कहे उसे 13 बरस हो गए। उसका जाना किसी वज्र की तरह कम नहीं। अब उसकी यादें शेष हैं। हर लम्हा, ऐसा लगता हैं कि वो अब आता ही है। लेकिन जाने वाले कहां आते। इतने अर्से में अब खुद को संभाल लिया। उसके परिजनों से लेकर दोस्तों ने नियति के हुक्म को मान लिया। ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दें। यही परमपिता परमात्मा से प्रार्थना हैं। एक बार फिर शत्-शत्- नमन्। सादर आदरांजलि।
अलीम बजमी
न्यूज एडिटर, दैनिक भास्कर भोपाल। 097543-04786