Monday 9 June 2014

दानी न बनें पत्रकार, मजीठिया न देने से भास्कर मालिकों को हर माह 25 करोड़ का फायदा होगा

दानी न बनें पत्रकार, मजीठिया न देने से भास्कर मालिकों को हर माह 25 करोड़ का फायदा होगा
सुना है भास्कर कर्मियों से यह लिखित लिया जा रहा है कि हमारा वेतन पर्याप्त है, हमें मजीठिया नहीं चाहिए। क्या बात है! पत्रकार इतने दानी हैं कि अपना वेतन नहीं ले रहे हैं। लेकिन वे एक बात भूल रहे हैं। जनाब आप वेतन नहीं लोगे तो आपके वेतन का करें क्या? भास्कर प्रबंधन को यह वेतन सरकार को दे देना चाहिए। क्योंकि जब कोई वेतन लेने से मना करता है तो सरकार का यह धर्म बनता है कि कर्मचारी से उसकी इच्छा जाने कि अपनी मेहनत की कमाई वह किसके हित में देना चाहता है। बस यहीं भास्कर प्रबंधन गलती कर रहा है। अब कर्मचारियों का धर्म बनता है कि वह यह लिखें कि चूंकि हमें इस वेतन की जरूरत नहीं इसलिए हम अपने बीबी बच्चों का हक अग्रवाल जी के बीबी बच्चों के नाम पर दान करते हैं।
शर्म नहीं आती है अख़बार प्रबंधन को जो कर्मचारियों का हक मारने के लिए तरह-तरह के जतन कर रहा है। और पत्रकार आपस में लड़ रहे हैं, आपने साथी कर्मचारियों की मलिकों से शिकायत कर रहे हैं। कुछ लोग मलिकों की चमचागिरी कर रहे है और मालिक उनके लिए कुत्तों की तरह दो रोटियां डाल देते हैं और वे सारा दिन पूंछ हिलाते रहते हैं। ऐसे मौके पर आपसी मतभेद भुलाकर पत्रकारों व संगठनों को एक होना पड़ेगा। संगठन की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। इस संबंध नियम क्या हैं उनके बारे में मैं अपने पूर्व लेख 'नहीं होते ठेका पत्रकार मजीठिया देना प्रेस मलिकों की कानूनी मजबूरी' में चर्चा पहले ही कर चुका हूं कि कर्मचारियों से अपने हित में कुछ लिखा लेना गैर कानूनी है।
एम्प्लायमेंट स्टैंडर्स एक्ट 1946 की धारा 38 के तहत कर्मचारियों के साथ ग़ैरकानूनी शर्तें स्वतः समाप्त हो जाती है। और ग़ैरकानूनी उसे कहा जाता है जो कानून से बचने के लिए जतन किया जाए। ऐसा हो तो सट्टा लगाने वाले भी एक स्टांप में लिखा लें। और उनकी हर बात मान ली जाए। ऐसे लिखित दस्तावेज की तभी तक मान्यता है जब तक कर्मचारी मुंह ना खोले। खैर यह तो अपने -आप में गैर कानूनी है लेकिन जो कानूनी तौर पर लिखा पढ़ी होती है उसमें भी एक पक्ष मुकर जाए तो दूसरे पक्ष को सीधा धूप दिखने लगती है। इस शोषण का असर बहुत गंभीर होता है।
फिलहाल चार पेपरों की बात करें भास्कर, जागरण, नई दुनिया व पत्रिका की। जिनका टर्नओवर हजार करोड़ के आसपास है। और मजीठिया वेतन बोर्ड के अनुसार यहां के छोटे से छोटे कर्मचारी का वेतन 50 हजार से ऊपर होता है। भास्कर में 5000 हजार से ज्यादा पत्रकार है और मजीठिया नहीं देने के कारण उसे हर माह 25 करोड़ रुपए से अधिक का फायदा होगा। यही हाल चारों प्रेसों का है तो 100 करोड़ रुपए एक माह वेतन के रूप में बचत होती है। जिसका फायदा मालिकों को हो रहा है।
अब बात उत्तर भारत के प्रेसों की करें तो छोटे-बड़े प्रेस मिलाकर लगभग 1 हजार करोड़ रूपए कर्मचारियों के वेतन के रूप में डकारे जा रहे है। दक्षिण भारत को भी मिला लिया जाए तो यह आंकड़ा 2 हजार करोड़ से ज्यादा हो जाता है। यह पैसा यदि पत्रकारों के पास आता तो एक लाख से ज्यादा पत्रकारों की दशा सुधरने के साथ ही 10 लाख लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से फायदा होता। क्योंकि यह पैसा मार्केट में जाता फिर दूसरे कामों में निवेश होता।
क्या होगा मजीठिया लागू होने पर?
मजीठिया लागू होने पर मालिकों को नुकसान नहीं अपितु थोड़ा कम फायदा होगा। दरअसल सरकार का मानना है कि पत्रकार खुद कमाएं और खाए। पत्रकारिता लाभ का धंधा ना बने। यह तभी संभव होगा जब हर कर्मचारी को शेयर धारक बनाया जाए। नहीं तो मालिक हमेशा कर्मचारियों का शोषण करता रहेगा। बोनस की भांति कर्मचारियों को साल में निर्धारित शेयर दिए जाए और एक दिन ऐसा आए जब कर्मचारी और मालिकों का शेयर बराबर हो। यह पद्धित प्रेस ही नहीं अपिंतु हर कंपनी व फैक्ट्री में लागू होनी चाहिए। जिससे लोगों के बीच आर्थिक असमानता दूर हो।
पत्रकारों को यह बात उठानी चाहिए। शायद यह प्रथा डेनमार्क में प्रचलित है। हां, मजीठिया लागू होने से प्रेस में कर्मचारियों पर बोझ बढ़ जाएगा, योग्य कर्मचारी ही पत्रकार बनेंगे। चार की जगह एक पत्रकार से प्रेस काम लेगा। पत्र की गुणवक्ता में सुधार होगा। और छोटे प्रेस व पत्रकारिता के नाम व गोरखधंधा बंद होगा। फिर कोई भी खुद को पत्रकार कहने में सौ बार सोचेगा। क्योंकि मजीठिया लागू होने के बाद पत्रकार पत्रकार के रूप में दिखेंगे।
मैं फिर इस बात पर जोर देता हूं कि इस पूरे मामले में पत्रकार संगठन की भूमिका महत्वपूर्ण है जिस तरह मजिठिया वेज बोर्ड के मामले में सुप्रीम कोर्ट में संगठनों ने अपनी जोरदार बात रखी उसी तरह पत्रकारों का उनका हक दिलाने के लिए सक्रिय होना होगा। संगठनों के हस्तक्षेप से काम जल्द होगा। पत्रकारों को भी फिलहाल आपसी मतभेद भुलाकर एक होना होगा। अपने झगड़े बाद में देख लेंगे। मेरे गांव में एक नियम बना है कि चाहे पड़ोसी या गांव का कोई सदस्य हमारा कट्टर दुश्मन हो लेकिन यदि उसके घर आग लगी है, डाका पड़ा है तो तत्काल मदद करनी पड़ेगी चाहे वह शारीरिक हो या आर्थिक। उसके बाद फिर दुश्मनी निभाओ, कोई बात नहीं। लेकिन ऐसे मौके पर यदि नहीं गए तो पूरा गांव आपका दुश्मन हो जाएगा।

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