सरकार को गुमराह कर पत्रकार भवन बिकवाने की तैयारी भोपाल // आलोक सिंघई मध्यप्रदेश सरकार भले ही राज्य में पत्रकारों का बेहतर सूचना और संवाद का तंत्र स्थापित न कर पाई हो .पत्रकारों के लिए कोई नीति नहीं बना पाई हो पर वह पत्रकारों के गौरव का केन्द्र रहे पत्रकार भवन को बिकवाने के षड़यंत्र में जरूर शामिल हो गई है.इस षड़यंत्र में पत्रकारों के कुछ गद्दार भी शामिल हैं, जिन्होंने बिल्डरों के सहयोग से इस जमीन को बिकवाने की तैयारी कर ली है. ताजा षड़यंत्र की सूचना नवनिर्वाचित सदस्यों की बातों से शुरु से मिल रही थी. इसके बाद भी पत्रकारों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था. लेकिन जब टेबल के नीचे से हुए समझौते में पत्रकार से मॉल बिल्डर बने दीपक चौहान को सचिव पद पर नामित करवाया गया तो ये सूचना लगभग पुष्ट हो गई. मालवीय नगर की वह जमीन जिस पर पत्रकार भवन स्थित है वह आज करोड़ों की संपत्ति बन गया है. न्यू मार्केट के इसी स्थान के नजदीक मध्यप्रदेश हाऊसिंग बोर्ड ने पुनर्घनत्वीकरण योजना के अंतर्गत बाजार,दफ्तर और निवास बनाने का सीबीडी प्रोजेक्ट हाथ में लिया है जिसके लिए देश की विख्यात कंस्ट्रक्शन कंपनी गेमन इंडिया लिमिटेड ने सरकार को एकमुश्त लगभग साढ़े तीन सौ करोड़ रुपए अग्रिम के तौर पर अदा किए थे.मालवीय नगर के पत्रकार भवन की जमीन लगभग 980 वर्ग मीटर है. इसके आसपास की जमीनों और झुग्गियों को मिलाकर यह स्थान करोड़ों की कीमत रखता है. ये बात अलग है कि गेमन इंडिया के अनुबंध से सबक लेकर भूमाफिया इस जमीन को कौड़ियों के भाव लेकर बंदरबांट करने के लिए तैयार बैठा है. ये भवन चूंकि कभी प्रदेश भर के पत्रकारों के लगाव का केन्द्र रहा है इसलिए सरकार इसे अपने फैसले पर नहीं बेच सकती है. यह फैसला पत्रकारों की ही जेबी समिति से कराया जाए यह सोचकर आनन फानन में चुनाव कराए गए और अब पत्रकारों को जोड़ने की मुहिम भी तेज कर दी गई है. राजधानी के इस पत्रकार भवन की नींव भोपाल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के बैनर तले पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों ने लगभग 43साल पहले 11 फरवरी 1969 में रखी थी. पत्रकारों की ये संस्था तब देशभर के पत्रकारों की एकमात्र बड़ी संस्था इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन की मध्यप्रदेश इकाई से जुड़ी थी. भोपाल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल ने पत्रकार भवन के निर्माण के लिए पत्रकार भवन समिति बनाई जिसे मध्यप्रदेश सोसायटी पंजीकरण अधिनियम 1959 के तहत 1970 में पंजीकृत कराया गया.इस अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत पत्रकार भवन सोसायटी का पंजीयन क्रमांक 1638 । 1970 है. इस समिति के संविधान में सदस्यता के कालम में साफ लिखा है कि समिति की सदस्यता दो प्रकार की होगी. एक साधारण सदस्य होंगे जो श्रमजीवी पत्रकार होंगे और भारतीय श्रमजीवी पत्रकार महासंघ की मध्यप्रदेश इकाई से संबद्ध भोपाल श्रमजीवी पत्रकार संघ के सदस्य होंगे. इनकी सदस्यता का शुल्क एक रूपए होगा जो भोपाल श्रमजीवी पत्रकार संघ की सदस्यता के साथ वसूला जाएगा और पत्रकार भवन समिति के खाते में जमा किया जाएगा. यहां गौर करने लायक बात ये है कि पत्रकार भवन समिति को भोपाल श्रमजीवी पत्रकार संघ के लिए भवन बनाने का काम सौंपा गया था. यानि पत्रकार भवन की स्वामी भोपाल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन थी न कि पत्रकार भवन समिति. आज भी रजिस्ट्रार आफ सोसायटीज के दफ्तर में पत्रकार भवन समिति के नाम पर कोई अचल संपत्ति दर्ज नहीं है. जिसकी पुष्टि बाद में पंजीयक के पत्र से भी हुई है. जमीन की लीज डीड में लिखा है कि इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट से सम्बद्ध भोपाल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल के अध्यक्ष को हितग्राही(Grantee)माना जाएगा. बाद के सालों में कई बार पत्रकार भवन समिति का ही अध्यक्ष भोपाल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल का अध्यक्ष भी रहा इसलिए ये कहा जाने लगा कि वही भवन का स्वामी भी है. जबकि हकीकत ये है कि पत्रकार भवन समिति का अध्यक्ष भोपाल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल का प्रतिनिधि मात्र है.आज के संदर्भ में जिला प्रशासन ने जिस सूची पर चुनाव कराए हैं वो 1995 की एक आमसभा के रजिस्टर में दर्ज नामों की सूची है.इस सूची के अधिकांश सदस्य इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट से सम्बद्ध भोपाल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल के सदस्य नहीं हैं. इस यूनियन का दफ्तर न्यूमार्केट में के ही त्रिवेणी काम्पलेक्स में है और वर्तमान में इसकी अध्यक्ष सुश्री कृति निगम हैं. पत्रकार भवन समिति के प्रबंध मंडल के बारे में संविधान में कहा गया है कि वे 15 होंगे. इनमें भवन निर्माण होने तक निर्माण समिति के सदस्य, भोपाल श्रमजीवी पत्रकार संघ भोपाल (आईएफडब्लूजे से सम्बद्ध) के निर्वाचित अध्यक्ष और सचिव, मप्र श्रमजीवी पत्रकार संघ भोपाल(आईएफडब्लूजे से सम्बद्ध) के अध्यक्ष या उनकी ओर से नामांकित प्रतिनिधि, समिति के अध्यक्ष की ओर से दानदाताओं का एक प्रतिनिधि. अध्यक्ष अपने निर्वाचन के तुरंत बाद दो सदस्यों को नामांकित करेगा जिनमें से एक अनिवार्यतः राज्य सरकार का अधिकारी होगा.दस सदस्य एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष, एक सचिव का और एक कोषाध्यक्ष का चुनाव करेंगे. ये पदाधिकारी तीन वर्ष तक या नए प्रबंध मंडल के गठन तक अपने पदों पर बने रहेंगे. लेकिन साधारण सभा को ये अधिकार दिया गया था कि पत्रकार भवन का निर्माण होने पर वह नया प्रबंध मंडल गठित कर सकती है. पत्रकार भवन बनने के बाद चुनाव होते रहे और पदाधिकारी बनते रहे लेकिन विवाद तो तब हुए जब विजय सिंह भदौरिया नाम से पत्रकारिता में कदम रखने वाले शलभ भदौरिया ने इस भवन में कदम रखा. धीरे धीरे इसने संभ्रांत किस्म के पत्रकारों को अपनी मंडली के माध्यम से अपमानित करना शुरु कर दिया. कभी शराब पिलाकर, कभी महिलाओं से उनके खिलाफ शिकायतें करवाकर, कभी पत्रकारों पर ब्लैकमेलिंग के आरोप चस्पाकर इसने मुख्य धारा की पत्रकारिता को सत्ता की बांदी बनाने का अभियान शुरु कर दिया. इसका नतीजा ये हुआ कि राजनेताओं ने इसे हाथों हाथ लेना शुरु कर दिया और वे पत्रकारों को धमकाने के लिए इसे इस्तेमाल करने लगे.इसने धीरे धीरे नए पत्रकारों को युवा शाखा बनाकर जोड़ना शुरु कर दिया. इन पत्रकारों को वरिष्ठ पत्रकार चूंकि घास नहीं डालते थे इसलिए वे संगठन से जुड़ते गए. बाद में अखबार मालिकों पर विज्ञापन रुकवाने का दबाव डालकर इसने कई वरिष्ठ पत्रकारों को नौकरी से निकलवाने के षड़यँत्र रचे जिसके कारण गंभीर पत्रकारिता करने वाले पत्रकार नौकरियों से बाहर हो गए और उनकी जगह दोयम दर्जे वाले चापलूसों ने ले ली. इस बात से धीरे धीरे गंभीर पत्रकार खफा होते चले गए और उन्होंने इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के तत्तकालीन अध्यक्ष के. विक्रमराव से शिकायतें कीं. नतीजतन 1.11.1996 को उन्होंने शलभ भदौरिया से मध्यप्रदेश वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन से इस्तीफा लिखवा लिया. ये तनातनी पिछले कई सालों से चल रही थी.इसलिए शलभ भदौरिया ने मप्र वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल से मिलता जुलता नाम अनुवाद करके मध्यप्रदेश श्रमजीवी पत्रकार संघ मध्यप्रदेश ,व्यावसायिक संघ इंदौर में ट्रेड यूनियन के नाम पर पंजीकृत करवा लिया. इसका पंजीयन क्रमांक 2550 है जिसका पंजीयन 31 दिसंबर 1992 को जारी हुआ. लेकिन पंजीयन होने के 27 दिन पहले ही पत्रकार भवन समिति ने 03.01.1992 को पत्रकार भवन का एक कमरा आईएफडब्लूजे से सम्बद्ध संगठन की नकल पर बने इस संगठन मध्यप्रदेश श्रमजीवी पत्रकार संघ को आबंटित कर दिया. ये नया संघ पंजीयन के बाद भी इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट से सम्बद्ध नहीं था. आज भी इसका केन्द्रीय महासंघ से कोई नाता नहीं है. न ही वैधानिक तौर पर ये संगठन भोपाल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल से किसी किस्म का जुड़ाव रखता है. इस लिहाज से ये संगठन शुरु से पत्रकार भवन पर नाजायज कब्जाधारी ही बना रहा जिसके खिलाफ हमेशा अदालतों ने कार्रवाई करने के फैसले दिए. लेकिन भवन के स्वामित्म को लेकर पत्रकारों को कोई जानकारी नहीं थी लिहाजा वे भवन आते जाते रहे और सरकार ने ये सोचकर कि वह पत्रकारों को नाराज क्यों करे कानूनी कार्रवाई की अनुमति नहीं दी. हालांकि दिग्विजय सिंह सरकार के मंत्री नरेन्द्र नाहटा ने इस कानूनी पेंच को समझा और पत्रकार भवन खाली कराने की कार्रवाई भी करवाई. सरकार बदलने के बाद नई मुख्यमंत्री उमा भारती ने तो नया संगठन पंजीकृत करवाकर पत्रकार भवन की दशा और दिशा बदलने के उल्लेखनीय प्रयास किए. अचानक उमा भारती सत्ता से बाहर हो गईं और उनकी जगह आए कुंठित मानसिकता के बाबूलाल गौर ने सरकार की कार्रवाई को ठंडे बस्ते में डाल दिया. इसके बाद शिवराज सिंह चौहान ने बेवजह इस विवाद में हाथ डालने के बजाए पत्रकारों को व्यक्तिगत रूप से प्रसन्न रखने की नीति अपनाई जिससे पत्रकार भवन का विवाद जस का तस पड़ा रहा. ये धांधली इसलिए भी आसानी से चलती रही क्योंकि राज्य सरकारों के लिए वही प्रेस अच्छी थी जो उसके भ्रष्टाचारों पर या जनता के नाम पर कर्ज लेने की दौड़ पर कोई सवाल न उठाए. नतीजतन सरकारों ने पत्रकारों से गद्दारी करने वाले इस व्यक्ति को पर्दे के पीछे से प्रश्रय भी दिया. सरकार की ही शह पर इस धोखेबाज ने अदालतों को भी भरपूर झांसे दिए. अदालती प्रक्रिया में कब्जा सच्चा , दावा झूठा जैसे जुमले दुहराए जाते हैं. इसीलिए जब प्रशासक ने मप्र श्रमजीवी पत्रकार संघ को पत्रकार भवन खाली करने का नोटिस दिया तो संघ की ओर से अदालत से हस्तक्षेप चाहा गया. अदालत ने स्थगन तो दे दिया पर बाद में सच्चाई खुलने पर व्यवहार न्यायाधीश वर्ग 2 श्री विजय चंद्रा ने स्थगन रद्द कर दिया. सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151के अंतर्गत चूंकि अपील हाईकोर्ट में होती है इसलिए आईएफडब्लूजे से सम्बद्ध संगठन की नकल पर बने इस संघ ने हाईकोर्ट में जस्टिस आलोक अराधे की पीठ में वर्ष 2007 में अपील की.अदालत के ग्रीष्मावकाश का समय था इसलिए स्पेशल लीव पिटीशन (एसएलपी) के अंतर्गत ये सुनवाई की गई.पत्रकार भवन के प्रशासक ने शासन की तरफ से इस सुनवाई में अपना पक्ष नहीं रखा. भोपाल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन इस मुकदमे में पार्टी नहीं थी और उसके नेताओं को इस मुकदमे की जानकारी नहीं थी इसलिए हाईकोर्ट ने इकतरफा स्थगन आदेश दे दिया. तबसे लेकर आज तक आर्डर शीट पर जजों ने कोई टीप नहीं लिखी और स्थगन के सहारे चार सालों से ज्यादा समय कट गया. इस याचिका में याचिका कर्ता के रूप में शलभ भदौरिया ने खुद को एमपी वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन का अध्यक्ष बताया था जब इसके खिलाफ एमपी वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल के अध्यक्ष जयंत वर्मा ने हाईकोर्ट को बताया कि ये व्यक्ति कूट कथन करके अदालत को गुमराह कर रहा है तो 22.06.2011 को एड्वोकेट जनरल आरडी जैन ने पत्र भेजकर स्पष्टीकरण मांगा. इसके जवाब में शलभ भदौरिया ने माफी मांगते हुए कहा कि गलती से एक्स शब्द छूट गया था.वह वास्तव में एमपी जर्निलस्ट यूनियन का पूर्व अध्यक्ष है.जबकि केवल इस शब्द के कारण वह अदालत में याचिका कर्ता ही नहीं हो सकता था. अदालती दांवपेंच में भी यह तथ्य कहीं उल्लेखित नहीं किया गया कि मध्यप्रदेश श्रमजीवी पत्रकार संघ ने आईएफडब्ल्यूजे से सम्बद्ध भोपाल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन की संपत्ति पत्रकार भवन पर जबरिया कब्जा कर रखा है .उसे ये आधिपत्य पत्रकार भवन समिति ने तब सौंप दिया था जब उसका पंजीयन भी नहीं हुआ था को कतई कानूनी हक साबित नहीं करता.हाईकोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने अपने फैसले में रजिस्ट्रार फर्म्स एवं संस्थाएं की ओर से जारी बेदखली आदेश दिनांक 30.07.2007 और सचिव वाणिज्य और उद्योग विभाग के आदेश दिनांक 22.08.2007 को यह कहकर खारिज कर दिया कि इनकी ओर से नियुक्त प्रशासक ने समय सीमा में चुनाव नहीं कराए हैं इसलिए प्रशासक की ओर से प्रस्तुत सूची के आधार पर चुनाव करवाकर अदालत को सूचित किया जाए. अदालत ने कहा कि ये चुनाव पत्रकार भवन समिति के संविधान के आधार पर करवाए जाएं. इसी मसले पर पंजीयक फर्म्स एवं संस्थाएं ने तो ये भी लिखा कि भारतीय श्रमजीवी पत्रकार संघ की मध्यप्रदेश इकाई से सम्बद्ध भोपाल श्रमजीवी पत्रकार संघ के सदस्य ही पत्रकार भवन समिति के सदस्य होंगे. क्योंकि माननीय उच्च न्यायालय ने आदेश दिनांक 6.52010 की कंडिका क्रमांक 14 में स्पष्ट निर्देश दिए हैं .उन्होंने कहा कि सूची को प्रमाणिक बनाने के लिए भोपाल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल के सदस्यों के बारे में केन्द्रीय इकाई से शपथ पत्र भी लिया जाना चाहिए. इसके बावजूद प्रशासक जी.पी.माली ने कुछ नासमझ सत्ताधारियों की ओर से हरी झंडी मिलने के बाद आनन फानन में चुनाव करवा दिए जिसमें कई नियमों का खुला उल्लंघन किया गया है. भोपाल के पत्रकारों को चुनाव में शामिल न होने देने के लिए प्रशासक ने उस सूची को मतदाता सूची मान लिया जिसे कभी याचिका कर्ता ने प्रस्तुत किया था. इसके पीछे भय ये था कि यदि तमाम पत्रकार इस चुनाव में शामिल हो गए तो नतीजों को नियंत्रित कर पाना किसी के बस में नहीं होगा. चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद एमपी वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल के महासचिव दिनेश निगम ने प्रशासक पत्रकार भवन को सूची प्रस्तुत की थी और उन्हें बताया था कि ये पत्रकार आईएफडब्लूजे से सम्बद्ध इकाई के सदस्य हैं.इसके बावजूद प्रशासक ने वही गलती कर दी जो उससे सरकार के बड़े अधिकारियों ने करवा डाली. 31 दिसंबर को चुनाव का नोटिफिकेशन जारी करने के साथ प्रशासक ने 3 जनवरी को सदस्यता सूची भी जारी कर दी पर इस सूची पर आपत्ति नहीं बुलाई. जब 4 जनवरी को दिनेश निगम ने सूची सार्वजनिक करने की मांग की तो 13 जनवरी को प्रशासक ने समाचार पत्रों में ये सूची छपवाई. लेकिन इसके बाद भी न तो आपत्ति पर गौर किया गया न ही सूची में राजधानी के पत्रकारों को शामिल किया गया.नतीजों की घोषणा पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार दो फरवरी को की जानी थी पर प्रशासक ने नाम वापिसी के बाद ही प्रमाण पत्र देकर अपने ही नियमों का उल्लंघन भी कर डाला. इस तरह राजधानी के बहुसंख्य पत्रकारों की आंखों में धूल झोंककर, उच्च न्यायालय की मंशा को ताक पर धरकर जो चुनाव कराए गए वे एक तरह से लोकतंत्र का मजाक कहे जा सकते हैं. इसके बावजूद ज्यादातर पत्रकार साथियों का सोचना था कि यदि किसी तरह पत्रकार भवन की रौनक लौट सकती है तो वे इस चुनाव का भी स्वागत कर सकते हैं. क्योंकि विनोद तिवारी, अख्तर अली और शब्बीर कादरी को रबर स्टैंप की तरह नहीं इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन अब तक की प्रगति से पत्रकारों का खोया भरोसा वापस नहीं लौटा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सत्तारूढ़ भाजपा से जु़ड़े लोग पत्रकारों से जुड़े इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करेंगे.
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