Sunday 15 December 2013

समानान्तर प्रेस खड़ा करने की बढ़ती जिम्मेवारी

देवेन्द्र कुमार
के.के. माधवके नेतृत्व में 1980 में पुनर्गठित द्वितीय प्रेस कमीशन ने 1982 में अपनी अनुशंसा प्रस्तुत करते हुये देश के तत्कालीन प्रजातांत्रिक-सामाजिक हालात के मद्देनजर प्रेस की भूमिका एवम् कार्यप्रणाली को पुनर्परिभाषित करते हुये यह अनुशंसा की थी कि चूंकि प्रेस में शहरी पक्षधरता मौजूद है, यह सिर्फ राजनीतिक उठापटक में रुचि लेता है, जिसका केन्द्र बिन्दु देश और राज्य की राजधानियां होती हैं पर दूसरे स्थानों खास कर ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहे सामाजिक- आर्थिक एवम् ढांचागत परिर्वतनों की उपेक्षा कर दी जाती है। इसलिए  एक रूरल न्यूज सर्विस का गठन किया जाय जो धरातल पर हो रहे, हलचल की खबर ले सके।
तब से आज तक तीन दशक गुजर गया पर हालात में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। भले ही आज खबरिया चैनलों में टी आर पीके लिए गला- काट प्रतियोगिता हो, एक सांई और एक बापू को पकड़ महीनों तक दर्शको को एक ही बासी कहानी नई- नई चासनी, छौंक और कलेवर के साथ परोसा जाय, कभी साँड़ को तीसरी मंजिल पर दिखा, उस तक पहुंचने के लिए किस सीढ़ी का प्रयोग हुआ, इसकी व्यापक छान- बीन की जाय या कभी बेमतलब की खुदाई का लाईव प्रसारण किया जाय, पर ग्रामीण समाज की खबरों को आज भी उपेक्षा की ही दृष्टि से ही देख जाता है। शहरी-अभिजात्य मीडियाकर्मियों को उसमें कोई न्यूजवर्दी नजर नहीं आती। उनका चरित्र व जीवनशैली ग्रामीण समाज की  सामाजिक बुनावट एवम् उसकी सोशल केमेस्ट्री को समक्षने में बाधक रहा है। ग्रामीण समाज की सामाजिक संरचना एवम् आर्थिक-  सामाजिक बुनावट में रिपोर्ट करने के लाईक कुछ भी नजर ही  नहीं आता।
शहरों में कार्यरत मीडियाकर्मियों की दृष्टि उच्च मध्यम वर्ग पर ही टिकी है। यही वर्ग उसका उपभोक्ता है। उच्च मध्यम वर्ग की क्रयशक्ति ही मीडिया का प्राणवायु है। कोई भी देशी-विदेशी कम्पनियां अपना विज्ञापन देने के पूर्व इस बात की पूरी जाँच परख करती हैं कि जिस अखबार में वह विज्ञापन देने जा रहा है उसके पाठक वर्ग की सामाजिक- आर्थिक हालात कैसी है। उसकी जीवन पद्धति कैसी है। कहीं वह सादा जीवन उच्च विचार एवम् आत्म संतोष में विश्वास  करने वाला परम्परागत ग्रामीण परिवेश का पाठक तो नहीं है। यदि अखबार का प्रसार सीमित है पर पाठक वर्ग उच्च मध्यम वर्ग से आता है तो भी उसे विज्ञापन प्रदान करना लाभ का ही धंधा ही होगा, वनिस्बत ग्रामीण पृष्ठभूमि के अधिक प्रसार वाले अखबार से। क्योंकि ग्रामीण समाज की क्रय क्षमता बेहद कमजोर है, न ही इनके अन्दर शहरी सौन्दर्यबोध है और न ही अपने रूप को निहारते रहने की अभिजातीय हीन भावना है।
इस परिस्थिति में द्वितीय प्रेस कमीशन का सुझाव कभी भी अमल में आने की सम्भावना ही नजर नहीं आती। कोई भी अखबार अपने को ग्रामीण समाज की ओर उन्मुख करना नहीं चाहता। सिर्फ कभी कभी हत्या- नरसंहार की खबरें और इन्दिरा आवास, मनरेगा,वृद्धा पेन्शन आदि में घपलों की खबरों के, जिनका प्रयोग अखबारों में फिलर के रूप में किया जाता है। यही कारण है कि लालू यादव के देशी वाक्य- विन्यास को मजाक के रूप में सही अभिजात्य मीडिया में हाथों हाथ लिया जाता है पर इसी लालू यादव के शासन काल में ग्रामीण समाज की सामाजिक संरचना में जो परिर्वतन आया हैहजारों बरसों से उपेक्षित जातियों ने जो करवट ली है, उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। कारण स्पष्ट है कि लालू को उपहास उड़ाते हुये भी बेचा जा सकता है पर इस धरातल पर हुये सामाजिक- संरचनागत परिर्वतन को वे कब और कहाँ बेचेंगे?
ग्रामीण समाजकी क्रयशक्ति तो निम्न है ही, उनकी सामाजिक और आर्थिक बुनावट एवम् जीवनशैली भी कुछ इस प्रकार की है कि ग्रामीण समाज का मलाईदार तबका जो वहाँ बाबू साहब और धन्ना सेठ माना जाता है, उसकी आर्थिक स्थिति एक हद तक मजबूत होने के बाबजूद जीवन शैली अत्यधिक सादगी और सरलता पर ही आधारित ही है। हाल के दिनों में ग्रामीण समाज में आई सादगी और सरलता के तमाम क्षरण के बाबजूद अभी भी वे पूँजी का निवेश जमीन खरीदने में ही करना श्रेयस्कर मानते हैं। चरम उपभोक्तावाद की प्रवृति अभी भी वहाँ नहीं पनपी है। सामाजिक-आर्थिक संरचना में आये तमाम परिर्वतन के बाबजूद भारतीय संस्कृति के आर्दश के रुप में प्रस्तुत किया जाता रहा, आत्मसंतोष अभी भी ग्रामीण समाज में ही मौजूद है।
बड़े- बडे शहरों में केन्द्रित मीडियाकर्मी में से कई ग्रामीण समाज के मलाई तबके से ही आते हैं। स्वाभावत्ः वे ग्रामीण समाज के अंतर्सम्बंधों से पूरी तरह परिचित हैं पर आधुनिक शिक्षा एवम् परिधान धारण करने के बाबजूद इनका संस्कार पूरी तरह परम्परागत है। ये हमेशा द्वंद्व का शिकार रहते हैं। समता- समानता, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता की चर्चा करते हुये भी, उसके पक्ष में बहस करते हुये भी इनके अत:करण में एक डर बना रहता है कि यदि वास्तव में इनके सपने का ही हिन्दुस्तान  निर्मित हो गया तो उस एकाधिकार का क्या होगा जो ग्रामीण समाज के सामाजिक संरचना में इनके पूर्वजों के द्वारा बड़े ही जतन व तिकड़म से तैयार की गयी है। ये खुद अपने द्वारा ही कल्पित तस्वीर को वास्तविकता में बदलने की आशंका से सिहर उठते हैं।
इस परिस्थिति में द्वितीय प्रेस कमीशन की अनुशंसा का क्रियान्वयन में बाधा तो साफ नजर आती है पर इसके क्रियान्वयन की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है। आखिर सूचना के इस साम्राज्यवाद में, मीडिया एक्सपलोज़न के इस दौर में मौजूदा प्रेस के समानान्तर प्रेस का गठन कैसे किया जाय?  क्योंकि बगैर इसके ग्रामीण समाज का अन्तर्संघर्ष सामने नहीं आयेगा। ग्रामीण समाज की तटस्थ, स्पष्ट और वस्तुनिष्ठ तस्वीर सामने नहीं आ पायेगी। ग्रामीण समाज में चल रहे विभिन्न आन्दोलन, संघर्ष एवम् द्वंद्व का प्रकटीकरण नहीं हो पायेगा। सूचना साम्राज्यवाद के इस दौर में मीडिया का चरित्र मूल रूप से अभिजातीय ही है। एक समय अपने को सामाजिक परिर्वतन का औजार मानने वाला, उसके हक हुकूक की वकालत करने वाला मीडिया अपने को उत्पाद के रूप में बदले जाने पर कहीं से भी दुखी नजर नहीं आता। क्योंकि इससे इनके सुविधा में विस्तार होने की संभावना है,  फटेहाली और बदहाली के लिए बदनाम मीडियाकर्मियों  के जीवन का रंग चटक होने की सम्भावना है। इसलिए मीडिया में सूचना साम्रज्यवाद के विस्तार से इनके लिए दुखी होने का कोई कारण नजर नहीं हैं ।
कुछ वर्ष पूर्व बिहार वामसेफ के राज्य कन्वीनर उमेश रजकअखिल भारतीय जनप्रतिरोध मंच से जुड़े राहुल और बोधगया भू आन्दोलन और छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के गणेश कौशल आजाद से बात हो रही थी। यद्यपि तीनों अलग अलग संगठनों से जुड़े थे, तीनों की वैचारिक प्रतिबद्धता भी अलग-अलग ही थी, पर एक बात साफ थी कि तीनों ही  जमीन से जुड़े थे और तीनों ही धाराओं से इस बात को रेखांकित किया जा रहा था कि मौजूदा मीडिया या यों कहें तो कि कथित मुख्यधारा के मीडिया की प्रतिबद्धता शासक समूहों के प्रति समर्पित है, यह सिर्फ शासक समूहों के आपसी अन्तर्द्वन्द्वों के कारण भले ही कुछ सनसनीखेज मामले को सामने लाता है पर वंचित समूहों के अघिकार और सता में भागीदारी के सवाल पर इनका नजरिया मूल मुद्दे को ही भटकाने वाला होता है। पर बड़ा सवाल यह है कि इसका समाधान क्या हो। बरसों से बामसेफ की और से दैनिक अखबारों के प्रकाशन की बातें चल रही है पर यह जमीनी शक्ल लेता नहीं दिखता। आखिर कार हमें उस रास्ते की तलाश तो करनी ही होगी जिससे कि मुख्यधारा के मीडिया के समानान्तर दूसरी व्यवस्था खड़ी की जा सके। जो ग्रामीण समाज में चल रहे जनतांत्रिक एवम् वर्गीय संघर्ष को निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ रुप से कवरेज कर सके। और आज के अभिजातीय प्रेस के द्वारा वर्दीलेस मान कर छोड़ दिये जा रहे उन तमाम घटनाओं को भी सामने ला सके जो ग्रामीण समाज के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण एवम् आवश्यक है। इस परिस्थिति में समानान्तर प्रेस खड़ा करने की जिम्मेवारी एक गम्भीर सवाल बन कर सामने आता है। पर इसकी कोई स्पष्ट रुपरेखा बनती नजर नहीं आती। खास कर एक समाचारपत्र के प्रकाशन के लिए जितनी बड़ी रकम एवम् साधन -संसाधन की जरुरत होती है, वह सबसे बड़ा संकट है।
चाहेजैसे हो जिला स्तर तक प्रेस को खड़ा करना होगा, गँवई और गँवार माने जाने वाली बोलियों में इसका प्रकाशन करना होगा। क्योंकि धरातल की खुशबू महानगरों से प्रकाशित हो रहे समाचारपत्रों से नहीं आयेगी। और न ही इसका समाधान इन पत्रों के द्वारा स्थानीय संस्करण  निकालने से होगा। क्योंकि इनका अभिजातीय चरित्र इनके स्थानीय संस्करणों में भी देखने को मिल रहा है।
एक बात और जब हम समानान्तर मीडिया की बात करते हैं तो मजबूरी वश हमारा आशय सिर्फ प्रिंट मीडिया से ही होता है, क्योंकि वंचित समूहों और ग्रामीण समाज में ऑन लाईन मीडिया की पहुँच की बात करनी ही बेमानी है।

No comments:

Post a Comment